पशु आहार में प्रोबायोटिक का उपयोग

जुगाली करने वाले पशु ओं के दैनिक आहार में रेषेदार खाद्य पदार्थों जैसे भूसा, कडवी और हरे चारे की मात्रा अधिक होती है। इन पशु ओं में आहार के रेषेदार घटक को पचाने के लिये प्रकृति ने इन पशु ओं के आमाषय को चार भागों में विभक्त किया हुआ है। पहला भाग जिसे रूमेन कहते है जन्म के छः माह के अन्दर पूर्ण विकसित हो जाता है। रूमेन में उपस्थित 1 मि.ली. द्रव्य में करीब 105 प्राटोजोआ और 10¹⁰ बैक्टीरिया पाये जाते हैं। ये सूक्ष्म जीवाणु दाने – चारे के रेषों को पचाने में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं जिसके परिणामस्वरूप दाने चारे से वाष्पषील वसा अम्ल बनते हैं जो कि षरीर द्वारा अवषोषित होकर पशु  को ऊर्जा प्रदान करते हैं। नवजात जुगाली करने वाले पशु ओं की आहार नाल लगभग जीवाणुहीन होती है। जन्म के बाद जब बछडे बाहर के वातावरण में आते हैं, माॅ से दूध पीने के साथ, दूसरे पशु और उनके आहार के सम्पर्क में आने से, उनकी आहार नाल में जीवाणु प्रवेश कर जाते हैं तथा धीरे – धीरे अपना स्थाई आवास बना लेते हैं एवं लगातार वृद्धि करते रहते हैं। इस प्रकार पशु ओं की आहार नाल में स्थापित यह जैविक वातावरण उनकी विभिन्न प्रकार की बीमारियों से रक्षा करने के साथ – साथ आहार को सुपाच्य खाद्यों में परिवर्तित करके इसकी पौष्टिकता को भी बढा देते हैं। जब कभी भी आहार नाल में उपस्थित जीवाणुओं के अनुपात में असंतुलन हो जाता है तब पशु ओं के उपापचय, स्वास्थय व उत्पादन पर इसका बुरा प्रभाव पडता है। धीरे – धीेरे उपचार करने के बाद जीवाणुओं के अनुपात में सुधार होने के बाद पशु ओं की उत्पादकता में वृद्धि होती है।

प्रोबायोटिक पाचन हेतु एक प्रकार के उपयोगी जीवाणु होते हैं जो कि रेषेदार खाद्य पदार्थ के पाचन के साथ दूसरे लाभकारी जीवाणुओं के बढने में भी सहायक होते हैं। अधिक उत्पादन की होड में पशु  स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रखने के लिये व अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिये क्रमषः एंटीबायोटिक का उपयोग बहुत अधिक होने लगा। निष्चित तौर पर एंटीबायोटिक के उपयोग से पशु  वृद्धि एंव उनका उत्पादन बढता है परन्तु लगातार पशु  में उसके उपयोग करने से बहुत अधिक नुकसान भी होता जा रहा है। एंटीबायोटिक के अधिक प्रयोग से पशु ओं के स्वास्थ्य पर होने वाले दुष्प्रभाव, पशु  उत्पादों में इनके अवशेष  तथा कई प्रकार के रोगों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता उत्पन्न होने के कारण बहुत से देषों ने पशु  आहार में एंटिबायोटिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है। एंटिबायोटिक के प्रयोग से पाचन तंत्र में उपस्थित उपयोगी जीवाणु भी नष्ट हो जाते हैं जिसके कारण पाचन तंत्र की क्रिया प्रणाली खराब हो जाती है। प्रोबायोटिक शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग उन सूक्ष्म जीवाणुओं के लिए किया गया था जो पाचनषील सूक्ष्म जीवाणुओं का सन्तुलन बनाये रखने में सहयोगी होते हैं। बाद में इनकी पुनः व्याख्या एक फीड एडिटिव के रूप में की जो पशु के पाचन तंत्र में उपयोगी सूक्ष्म जीवाणुओं की वृद्धि करके उनका सन्तुलन सुधार कर पाचन तंत्र में लाभदायक प्रभाव पैदा करते है। प्रोबायोटिक के अन्तर्गत मुख्य रूप से सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे बैक्टीरिया (लैक्टोबैसिलस, पेडियोकोकस, ल्यूकोनाॅस्टाॅक, स्टेªप्टोकोकस) और कवक (सेक्रोमाइसिस सेरेविसी, एस्परजिलस ओराइजी, कैन्डिडा पिंटोलोपसाइ) को पशु आहार के साथ उपयोग कर पशु के स्वास्थ्य को लाभकारी बनाया जाता हैं।

लैक्टिक अम्ल उत्पादी बैक्टीरिया

पशु  के पाचन संस्थान में खाद्य पदार्थों के सडने के कारण आंत्रीयविषजनी जीवाणु काफी अधिक संख्या में उनकी आंतों से चिपककर वृद्धि करते रहते हैं एवं विषकारी पदार्थों का उत्सर्जन करते रहते हैं जो कि पशु  के स्वास्थय के लिए काफी हानिकारक होता है। गाय और भैंस के बछडों में प्रायः आंत्रीय बैक्टीरिया मुख्य रूप से ई. कोलाई के हानिकारक प्रभाव से अतिसार के लक्षण उत्पन्न होते हैं उनमें पोषक तत्व व पानी की कमी हो जाती है जिसके कारण इस अवधि में मृत्यु और बीमारी की दर बहुत अधिक होती है। जुगाली करने वाले पशु ओं के नवजात बछडों और रोगी पशु ओं में प्रोबायोटिक का उपयोग सिर्फ उनका स्वास्थय व उत्पादन बढाने के लिये ही नहीं बल्कि उनकी आहार नाल के सूक्ष्माणुविक परिवेष को सही बनाए रखने के लिये भी किया जाता है। नवजात बछडों के आहार में लैक्टोबैसिलाई से किण्वित दूध पिलाने पर अतिसार की उग्रता में कमी आती है और पशु  को षीघ्र स्वास्थय लाभ मिलता है।

लैक्टोबैसिलाई जैसे सूक्ष्म जीवाणु पाचन तंत्र में अधिक मात्रा में एसिटिक और लैक्टिक अम्ल का उत्पादन करते हैं जिसके कारण आहार नाल के द्रव्य की क्षारीयता (पी एच) घट जाती है जिसके कारण नुकसान पहॅुचाने वाले जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। पशु ओं में अतिसार के रोगाणुओं की संख्या में बढोत्तरी के लिए उनका आंत्रभित्ति पर चिपकना अनिवार्य है। ये जीवाणु आंत में क्रमाकुंचन द्वारा उसको नुकसान पहुॅचाते है। जिससे आहार का पाचन एवं अवषोषण अच्छी प्रकार नही हो पाता है और यह अतिसार का रुप ग्रहण कर लेता है। लैक्टोबैसिलस जीवाणु का उपयोग प्रोबायोटिक के रुप में करने से इन जीवाणु की आंत में चिपके हुये अतिसार के रोगाणुओं से प्रतिस्पर्था होने लगती है और धीरे – धीरे लैक्टोबैसिलस की क्षमता अधिक होने से ये रोगाणुओं को आहार नाल से बाहर निकाल देते हैं। इसीलिए गाय और भैंस के नवजात बच्चों को स्वस्थ रखने के लिये व उनकी मृत्युदर में कमी लाने के लिये लैक्टोबैसिलस खिलाने की सलाह दी जाती है। लैक्टोबैसिलाई द्वारा उत्पादित हाइड्रोजन पर ऑक्साइड कम पी एच पर अपनी ज्यादा शक्तिशाली रोगाणुषील क्षमता के कारण रोगाणुओं को मारने में आंषिक रुप से जिम्मेवार हैं।

खमीर/यीस्ट

वैज्ञानिक खोजों द्वारा ऐसा पाया गया है कि रोमांथी पशु ओं के आहार में खमीर के प्रयोग से आहार नाल की पी एच में स्थिरता आने से सेलुलोज पचाने वाले सूक्ष्म जीवाणु की वृद्धि के लिये अनुकूल वातावरण बनता है। रूमेन में खमीर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण लक्षण ऑक्सीजन उपभोग है। दाना-चारा खाने के साथ-साथ जुगाली करने वाले पशु  में हवा में मिश्रित ऑक्सीजन का बुरा प्रभाव पडता है क्योंकि अधिकांष रूमेनी सूक्ष्माणुओं के लिये ऑक्सीजन हानिकारक होती है। परन्तु यीस्ट का पशु  के खाने में उपयोग करने से रूमेन में जाने वाली ऑक्सीजन का उपभोग इनके द्वारा कर लिया जाता है जिससे रूमेन के अन्दर सूक्ष्म जीवाणुओं को ऑक्सीजन की उपस्थिति से हानिकारक असर नही हो पाता है। इसी प्रकार सैक्रोमाइसिज सेरिवेसी विटामिन और अन्य आवष्यक पोषक तत्व प्रदान करके रूमेन के कवक जैसे कि नियोकैलिमैस्टीक्स फ्रांटैलिस के जूस्पोर के अंकुरण और सैल्युलोज पचाने की क्षमता बढाते हैं। प्रयोगों से पाया गया कि प्रोबायोटिक खिलाने से बछडों में अतिसार का प्रकोप जन्म के प्रथम चार सप्ताह में काफी कम हो जाता है।

पशुओं को प्रोबायोटिक खिलाना

पशु  को प्रोबायोटिक या तो आहार के द्वारा या पानी के द्वारा या गुड इत्यादि में मिलाकर खिलाया जा सकता है पर आहार के साथ मिलाकर खिलाना काफी आसान रहता है। प्रोबायोटिक को कम तापमान पर सुखाकर चूर्ण अथवा गोली या आहार में मिलाकर भी खिलाया जा सकता है। किसी भी प्रोबायोटिक की उपयोगिता उसमें उपस्थित जीवित सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या के ऊपर निर्भर करती है। यह सूक्ष्म जीवाणु सामान्तया उनके उपयुक्त खाद्य पदार्थ न मिलने के कारण व अधिक तापमान के कारण जीवित नही रह पाते हैं। जीवित सूक्ष्म जीवाणु जैसे ही पशु  के पाचन तंत्र में पहुॅचते हैं अपने आप को वहाॅ पर स्थायित्व देते हुये कार्य प्रारम्भ कर देता है। किण्वित आहार में सूक्ष्माणुओं की संख्या बहुत तेजी से बढती है। किण्वित आहार में चूंकि सूक्ष्माणु सक्रिय अवस्था में होते हैं इसीलिए पशु  के पाचन तंत्र में पहुॅचते ही अपना प्रभाव षुरू कर देते हैं जबकि चूर्ण या गोली में सूक्ष्माणु निष्क्रिय अवस्था में होते हैं इसीलिए पशु  के पाचन तंत्र में पहुॅचने के बाद सक्रिय होने के लिये थोडा समय लेते हैं तथा इनकी संख्या भी धीमी गति से बढती है। किण्वित आहार में बैक्टीरिया और उनके द्वारा उत्पादित उपापचय पदार्थ दोनों ही होने से वे अधिक प्रभावषाली होते हैं।

बछडों हेतु प्रोबायोटिक का उत्पादन

किण्वित दूध

लैक्टोबैसिलस एसिडोफिलस का खाद्य योजक बनाने के लिए दूध का माध्यम लिया जाता है। दूध को उबालकर सामान्य तापक्रम तक ठंडा करके उसमें 2 प्रतिषत की दर से लैक्टोबैसिलस एसिडोफिलस को मिलाकर लगभग 12 घण्टे तक रखने पर किण्वन क्रिया पूरी होती है। अब बछडों की आवष्यकतानुसार केवल यही किण्वित दूध अथवा इसको दूध के साथ आंषिक मात्रा में खिलाया जा सकता है।

किण्वित ठोस आहार (अन्न/चोकर)

किसान को अपने घर में किण्वित ठोस आहार पैदा करने के लिये मक्के का दलिया अथवा गेहूॅ का चोकर या दोनों के 5 कि.ग्रा. मिश्रण में 10 लीटर जल में अच्छी प्रकार मिश्रित करके उसमें लैक्टोबैसिलस एसिडोफिलस अथवा सैकेरामाइसिज सेरेवेसी को 1 प्रतिषत की दर से अच्छी प्रकार मिलाकर ढकने के बाद कमरे में सामान्य तापक्रम पर किण्वित होने के लिए लगभग 24 घण्टे तक रखना चाहिए। इसके बाद यह किण्वित खाद्य योजक, प्रोबायोटिक पशु  के लिए तैयार हो जाता है। दो सप्ताह बाद तक किण्वित खाद्य योजक की गुणवत्ता बनी रहती है।

किण्वित आहार के गुण

किण्वित खाद्य सुनहरे पीले रंग का होता है। इसमें किसी प्रकार की बाहरी कवक का प्रदूषण नही होता है। किण्वित खाद्य की महक रोचक होती है। आजकल कई व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के द्वारा प्रोबायोटिक का वृहद रुप से उत्पादन व विक्रय किया जा रहा है। काफी कम मात्रा में इनको पशु  आहार में उपयोग करके खिलाया जा सकता है। अतः किसान भाईयों को सलाह है कि प्रोबायोटिक का प्रतिदिन प्रति बडे पशु  के हिसाब से करीब 10 ग्रा. या जितनी भी मात्रा विभिन्न प्रोबायोटिक विक्रय करने वाली संस्थाओं द्वारा इंगित की गई है उसका उपयोग करके दुधारू पशु ओं से अधिक दूध का उत्पादन कर सकते हैं। अधिक दूध उत्पादन के साथ प्रोबायोटिक खिलाने से दूध में वसा की मात्रा में भी बढोत्तरी पाई गई है। प्रति नवजात बछडों को करीब 1 ग्रा. प्रोबायोटिक खिलाने से उनमें दस्त की बीमारी नही होने की संभावना रहती है। इसके साथ ही उनके शरीर में आहार की उपयोगिता में बढोत्तरी एवं शरीर में वृद्धि अधिक पाई जाती है। अतः प्रोबायोटिक की उचित मात्रा दुधारू पशु ओं को, उनके बच्चों को व अन्य पशु ओं को खिलाकर उनको स्वस्थ रखते हुए उनसे अधिक और सस्ता उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।


डाॅ. राजेश कुमार
स्नातकोतर पशु चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान
पी.जी.आई.वी.ई.आर., जयपुर