पशुओं में पागलपन या हलकजाने का रोग (रेबीज)

रेबीज एक विषाणुजनित रोग है जो स्तनधारियों को प्रभावित करता है। जंगली जानवरों को प्रभावित करने के साथ साथ मनुष्य व पशुधन भी जोखिम पर रहते हैं। यह ऐसा रोग है जो पशु से मनुष्य व मनुष्य से पशुओं में फैलता है। यह विषाणु मनुष्यों और पशुओं के मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी सहित केन्द्रीय तंत्र को प्रभावित करता है। इसमें रोगी के व्यवहार में बदलाव अधिक उत्तेजना, पागलपन, पक्षघात व मौत हो जाती है। मनुष्य में इसे हाइड्रोफोबिया या जलटांका कहते हैं क्योंकि इस रोग में गले की मांसपेशियों में ऐठन से रोगी पानी नहीं पी पाता है। इस बीमारी का जन स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है। एक बार पशु अथवा मनुष्य में इस बीमारी के लक्षण पैदा होने के बाद उसका फिर कोई इलाज नहीं है तथा उसकी मृत्यु निश्चित है।

संक्रमण

रेबीज वायरस रेबडो ग्रुप का विषाणु है जिसका आकार पिस्तौल की गोली की तरह होता है। यह विषाणु स्नायुतंत्र की कोशिकाओं में अपनी वृद्धि करते हैं। गर्म खून वाले पशु इस विषाणु के लिए ग्रहणक्षम है। ग्रहणक्षमता सभी जातियों में अलग है। पशु जैसे कुत्ता, लोमड़ी, भेड़िया, सियार, नेवला इस रोग के अत्याधिक ग्रहणक्षम है व विषाणु के वाहक है। घरेलु पशु जैसे गाय, भैंस, भेड़-बकरी, सुअर आदि भी रोग से ग्रसित होते हैं। यह विषाणु नर्वस टिश्यु, सेलिवरी ग्लेंड से लाइवा में पाए जाते हैं। बहुत कम बार यह लिम्फ, दूध व मूत्र में पाया जाता है। यह विषाणु हलकाये कुत्ते , बिल्ली , बन्दर, गीदड़, लोमड़ी या नेवले के काटने से स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश करते हैं तथा नाड़ियों के द्वारा मष्तिस्क में पहुंच कर उसमें बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं। रोग ग्रस्त पशु की लार में यह विषाणु बहुतायत में होता है तथा रोगी पशु द्वारा दूसरे पशु को काट लेने से अथवा शरीर में पहले से मौजूद किसी घाव के ऊपर रोगी की लार लग जाने से यह बीमारी फैल सकती है। विषाणु का छिद्र ओर त्वचा में खरोंच के माध्यम से शरीर में प्रवेश संभव है पर असमान्य है। खुले घाव, श्लेष्मा, झिल्ली, आंखें और मुँह विषाणु के लिए संभव प्रवेश द्वार हैं। सामान्य परिस्थितियों के अन्तर्गत विषाणु हवा के माध्यम से नहीं फैलता है। यह विषाणु के शरीर में घाव आदि के माध्य्म से प्रवेश करने के बाद कुछ दिनों से लेकर महीनो या साल तक की अवधि के बाद लक्षण प्रकट करता है। रोगोद्भवन अवधि के दौरान, विषाणु नसों से मस्तिष्क तक पहुँचता है। काटने के स्थान मस्तिष्क के जितना अधिक नजदीक होता है, उतनी ही जल्दी बीमारी के लक्षण पशु में पैदा हो जाते हैं, जैसे कि सिर अथवा चेहरे पर काटे गए पशु में एक हफ्ते के बाद यह रोग पैदा हो सकता है। बीमारी फैलने के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:-

  1. कुत्ते लोमड़ी, भेड़िया, बन्दर इत्यादि के काटने से।
  2.  चूहा, गिलहरी आदि द्वारा भी यह रोग फैलता हैं क्योंकि रेबीज का विषाणु प्राकृतिक रूप से इनके शरीर में पाया जाता हैं। यदि जगंली जानवर इनका शिकार करते हैं और खा जाते हैं तो ये रोग उनमें फैल जाता है।
  3. रोगग्रस्त पशु के मुँह में हाथ डालने से भी यह रोग फैल सकता  है।

रोग की संप्राप्ति

रेबीज विषाणु शरीर में प्रवेश करने के बाद  स्थानीय ऊतक ओर मांसपेशियों में अपनी वृद्धि करता है। इसके पश्चात विषाणु स्नायुतंत्र में प्रवेश कर जाता है । यह विषाणु  मेरुदण्ड के जरिये मस्तिष्क में पहुँचकर कई भागों को नुकसान पहुँचता है। इससे तंत्रिका कोशिकाएँ उत्तेजित होने से पशु उग्र हो जाता है और उनके हुई क्षति से कई मांसपेशियों का पक्षाघात हो जाता है। इस तरह गले और मुख की मांसपेशियों के पक्षाघात से पशु आहार व पानी नहीं निगल पाता।  विषाणु के शरीर में प्रवेश करने के बाद लक्षण आरम्भ होने के अंतराल कई बातों पर निर्भर करता है। शरीर पर पागल पशु द्वारा काटे गए स्थल की मस्तिष्क से दूरी, घाव में प्रवेशित विषाणुओं की संख्या, जख्म में जाने वाली लार की मात्रा आदि के अनुसार बीमारी के लक्षण बहुत जल्दी या देर से आते हैं। इसे रोगोद्भवन अवधि कहते हैं। इस प्रक्रिया में औसतन एक से तीन माह लगते हैं परन्तु कभी-कभी कुछ दिन व कुछ साल भी लग जाते हैं। यदि जख्म मस्तिष्क के पास किसी अंग जैसे चेहरे, गर्दन आदि पर हो तो रोग बहुत शीघ्र हो जाता है। इसके विपरीत यदि घाव  टांग आदि पर है तो बीमारी के लक्षण कुछ विलम्ब से आते है। इसी प्रकार यदि घाव गहरा हो या कई घाव हो तो ऐसी स्थिति में रेबीज रोग अधिक शीघ्र तथा गंभीर रूप में होता है।

लक्षण

रेबीज़ मुख्यत: दो रूपों में देखी जाती है,पहला जिसमें रोग ग्रस्त पशु काफी भयानक या उग्र  हो जाता है तथा दूसरा जिसमें वह बिल्कुल शांत रहता है । पहले अथवा उग्र रूप में पशु में रोग के सभी लक्षण स्पष्ट दिखायी देते हैं लेकिन शांत रूप में रोग के लक्षण बहुत कम अथवा नहीं के बराबर ही होते हैं। कुत्तों में इस रोग की प्रारम्भिक अवस्था में व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है तथा उनकी आंखे अधिक तेज नज़र आती हैं, बेचैनी बढ़ जाती है तथा उसमें बहुत ज्यादा चिड-चिडापन आ जाता है । वह काल्पनिक वस्तुओं की और अथवा बिना प्रयोजन के इधर-उधर काफी तेज़ी से दौड़ने लगता हैं तथा रास्ते में जो भी मिलता है उसे वह काट लेता हैं। अन्तिम अवस्था में पशु के गले में लकवा हो जाने के कारण उसकी आवाज में परिवर्तन हो जाता  है, शरीर में कपकपी तथा चाल में लड़खड़ाहट आ जाती है तथा वह लकवा ग्रस्त होकर अचेतन अवस्था में पड़ा रहता है । इसी अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाती है । गाय व भैंसों में इस बीमारी के उग्र रूप के लक्षण दिखते हैं| गाय/भैंस में रेबीज के निम्न लक्षण हैं:-

  1. पशु अस्थिर अवस्था में लड़खड़ाया नजर आता है, पशु अन्य पशुओं से टकरा जाता या सिर को किसी पेड़, खाने की नांद अथवा दीवाल ले साथ टकराता है।
  2. पशु काफी उत्तेजित अवस्था में तेजी से भागने दौड़ने का प्रयास करता हैं, बीच-बीच में जम्भाइयाँ लेते हुए ज़ोर-ज़ोर से रंभाता है ।
  3. हल्का तापमान, अस्वस्थता, भूख का कम लगना व दूध उत्पादन में कमी।
  4. कान का बार-बार कांपना व हिलना।
  5. मुख की मांसपेशियों के पक्षाघात के कारण पशु मुंह खुला रखता है मानो कोई चीज फंसी हो तथा अधिक लार गिराता व दांत पीसता है।
  6. पशु को कुछ निगलने व पानी पीने में तकलीफ होती है व बिना आवाज रंभाने की कोशिश करता है।
  7. स्वर रज्जू में पक्षाघात के कारण मुंह से कर्कश आवाज निकलती है।
  8. पशुओं में यौन इच्छा बढ़ जाती है, बार-बार पेशाब करते हैं, गाय व भैंस गर्मी के लक्षण प्रकट करती है जबकि सांड गाय व भैंस पर चढ़ता है।
  9. ये लक्षण 1–3 दिन चलते हैं धीरे धीरे पशु दुर्बल हो जाता है, पक्षाघात के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है ।

 मनुष्य में इस बीमारी के प्रमुख लक्षणों में उत्तेजित होना, पानी अथवा कोई खाद्य पदार्थ को निगलने में काफी तकलीफ महसूस करना तथा अंत में लकवा लकवा होना आदि है|

निदान

  1. ऊपर वर्णित रोगसूचक लक्षणों के आधार पर।
  2. ऊतकविकृतिविज्ञान परीक्षण में मस्तिष्क में नेगरी बोडी का उपस्थिति होना।
  3. फ्लोरीसेंट ऐटीबोडी टैस्ट द्वारा।

उपचार

सर्वविदित है कि एक बार लक्षण पैदा हो जाने के बाद इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, दवाइयों की सहायता से केवल रोगी पशु में उत्तेजना, दौर तथा कष्ट को कम किया जा सकता है। इसलिए जैसे ही किसी स्वस्थ पशु को इस बीमारी से ग्रस्त पशु काट लेता है उसे तुरन्त नजदीकी पशु चिकित्सालय में ले जाकर इस बीमारी से बचाव का टीका लगवाना चाहिए।  इस कार्य में बिल्कुल भी देरी नहीं करनी चाहिए क्योंकि टीकाकरण तक ही प्रभावकारी हैं जब तक कि पशु में रोग के लक्षण नहीं प्रकट होते। इसके अलावा काटने के तुरन्त पश्चात् यदि घाव को साफ पानी व साबुन से अच्छी तरह धो लिया जाए तो यह 50 प्रतिशत तक बचाव कर सकता है।

आवश्यक जानकारी

  1. क्या काटने वाला जानवर पालतू था या जंगली था?
  2. क्या काटने वाला पशु का वार्षिक टीकारण समय से दिया गया था ?
  3. वह स्वस्थ था या बीमार था?
  4. बिमारी के क्या लक्षण थे?
  5. घाव किस प्रकार का है? एवं शरीर के किस भाग पर घाव है?
  6. क्या क्या काटने वाला कुत्ता अथबा जानवर काटने के पहचान अगले 21 दिन तक निगरानी के लिए उपलब्ध है? यदि नहीं तो उसे मरा मान कर बचाव के लिए टीकाकरण आरम्भ कर दें।

रोकथाम

रेबीज से बचाव के लिए  केवल निम्न दो बातों का ध्यान आवश्यक है:

क. कुत्तों में रेबीज के बचाव का टीकाकरण।

ख. कुत्तों द्वारा काटे जाने से बचाव : पालतू कुत्तों को इस बीमारी से बचने के लिए नियमित रूप से टीके लगवाने चाहिए। पालतू कुत्तों का पंजीकरण सथानीय संस्थाओं द्वारा करवाना चाहिए तथा उनके नियमित टीकाकरण का दायित्व निष्ठापूर्वक मालिक को निभाना चाहिए।

 

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डॉ. मुकेश श्रीवास्तव

प्रभारी पशु औषधि विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञानं विश्वविद्यालय एवं गो अनुसन्धान संस्थान, मथुरा – उ. प्र.

डॉ. बरखा शर्मा

प्रभारी, जानपदिक एवं पशुरोग निवारक आयुर्विज्ञान विभाग, दुवासु, मथुरा