पशुओ में लंगड़ा बुखार (ब्लैक क्कार्टर)

लंगड़ा बुखार (Black Quarter)

बरसात के दिनों में पशुओं में सभी संक्रमित बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। क्योंकि मौसम में आद्रता  बढ़ जाती है जिससे जीवाणुओं को पनपने के लिए उपयुक्त वातावरण मिल जाता है। जीवाणु जनित रोगों में गलघोटू तथा लंगड़ा बुखार प्रमुखता से बरसात के दिनों में गाय, भैसों को प्रभावित करता है। पशुओ के लंगड़ा बुखार (Black Quarter) को साधारण भाषा में जहरबाद, फडसूजन, काला बाय, कृष्णजंधा, लंगड़िया, ब्लैक लैग, पुठटे की सूजन और एकटंगा आदि नामों से भी जाना जाता है। यह रोग प्रायः सभी स्थानों पर पाया जाता है लेकिन नमी वाले क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता है। जिस जगह यह रोग एक बार हो जाए वहाँ ये प्रायः हर वर्ष होता है। इस रोग का हमला एक साथ बहुत से पशुओं पर तो नहीं होता पर जो पशु इस की चपेट में आ जाए वो बच नहीं पाता। वैसे तो यह रोग गाय, भैंसों और भेड़ो आदि सभी में होता है, परन्तु यह रोग गाय में अधिक पाया जाता है। यह रोग मुख्यत: छह माह से दो साल तक की आयु वाले पशुओं में, यानि कि युवा तथा स्वस्थ पशुओ को ज्यादा प्रभावित करता हैं।

संक्रमण

यह रोग क्लोस्टरीडियम चौवई नाम जीवाणु से होता है। जो कि पुनस्र्त्पादक बीजो का निर्माण करता है। यह बीज  प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करते हुए कई सालों तक मिट्टी में जीवित रह सकते है। यह रोग मिट्टी द्वारा फैलता है, क्यूकि इस रोग के जीवाणु मिट्टी में संक्रमित प्राणियों के मल द्वारा या उसकी मृत्यु होने पर उसके शव द्वारा पहुचते  हैं। जीवाणु दूषित चारागाह में चरने से आहार के साथ स्वस्थ पशु के शरीर में प्रवेश कर जाता है। इसके अलावा शरीर पर मौजूद घाव के ज़रिये भी इसका संक्रमण होता है। भेड़ों में ऊन कतरने, बधिया करने तथा अन्य सर्जिकल कार्यों के दौरान भी संक्रमण हो सकता है।

प्रमुख लक्षण

इस रोग में पशु को तेज बुखार  (तापमान १०६ डिग्री फॉरेनाइट से १०७ फॉरेनाइट तक) आता है। पशु सुस्त होकर खाना पीना छोड देता है। पशु के पिछली व अगली टांगों के ऊपरी भाग में भारी सूजन आ जाती है, जिससे पशु लंगड़ा कर चलने लगता है, चलने में असमर्थ हो जाता है, या फिर अधिक दर्द के कारण  बैठ जाता है। सूजन वाले स्थान को  दबाने से चरचराहट की आवाज या कड़-कड़ की आवाज़ आती है। यह रोग अधिकतर पिछले पैरों को अधिक प्रभावित करता है एवं सूजन घुटने से ऊपर वाले हिस्से में होती है। सूजन शुरूवात में गरम एवं पीड़ादायक होती है जो बाद ठण्ड एवं दर्दरहित हो जाती है। पैरों के अतिरिक्त सूजन पीठ, कंधे तथा अन्य मांसपेशियों वाले हिस्से पर भी हो सकती है। सूजन के ऊपर वाली चमडी सूखकर कडी होती जाती है। यदि सूजन की जगह पर चीरा लगाया जाये तो काले रंग का झागदार रक्त निकलता है।  पशु का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस बीमारी के जीवाणुओं द्वारा हुआ ज़हर शरीर में पूरी तरह फ़ैल जाने ता कहे कि पूति जीवरक्तता (सेप्टिसीमिया) से पशु की मौत हो जाती है। सामान्यतः चिकित्सा के आभाव में लक्षण प्रारम्भ होने के 1-2 दिन में रोगी पशु की मृत्यु हो सकती है।

निदान

  1. ऊपर वर्णित लक्षणों के आधार पर
  2. प्रयोगशाला द्वारा प्रभावित मांसपेशी में जीवाणु का प्रदर्शन
  3. फ्लोरोसेंट एंटीबॉडी परीक्षण

उपचार

पेनिसिलीन, सल्फोनामाइड, टेट्रासाइक्लीन ग्रुप की प्रतिजीवी औषधियो के साथ अन्य सहयोगी व् लक्षणात्मक औषधियो उपयोग लाभकारी है,  औषधियो का प्रयोग बीमारी की तीव्रता तथा पशु की स्थिति के अनुसार किया जाना चाहिए। पेनिसिलीन की हाई डोज इसमें लाभकारी सिद्ध होती है। सूजन वाले स्थान पर प्रोकेंन पेनिसिलीन को सुई द्वारा माँस में  भी डाला जा सकता है।

रोकथाम

  • रोग ग्रस्त पशु के उचार हेतू तुरन्त नजदीकी पशु चिकित्सालय में संपर्क करना चाहिए ताकि पशु को शीघ्र उचित उपचार मिल सके। देर करने से पशु को बचना लगभग असंभव हो जाता है क्योंकि जीवाणुओं द्वारा पैदा हुआ जहर (टोक्सीन) पशु की मृत्यु का कारण बन जाता है।
  • बचाव के लिए पशु चिकित्सालय में रोग निरोधक टीके नि:शुल्क लगाए जाते है अत:पशु पालकों को इस सुविधा का अवश्य लाभ उठाना चाहिए। वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका लगवा लेना चाहिए। यह टीका पशु को ६ माह की आयु पर भी लगाया जाता है।
  • रोगी पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से दूर रखना चाहिए।
  • भेडों में ऊन कतरने से तीन माह पूर्व टीकाकरण करवा लेना चाहिये क्योंकि ऊन कतरने के समय घाव होने पर जीवाणु घाव से शरीर में प्रवेश कर जाता है जिससे रोग की संभावना बढ जाती है।
  • इस रोग से ग्रसित पशु के शव का निस्तारण वैज्ञानिक तरीके से जमीन में दबाके या जलाकर करना चाहिए।

और देखें: लम्पी स्किन डिसीज (त्वचा में गांठ का रोग/लम्पी त्वचा रोग)


डॉ. मुकेश श्रीवास्तव

प्रभारी पशु औषधि विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञानं विश्वविद्यालय एवं गो अनुसन्धान संस्थान, मथुरा – उ. प्र.