पशुओ में गलघोटू रोग : लक्षण एवं बचाव

पशुओ में गलघोटू रोग

गलाघोंटू रोग मुख्य रूप से गाय तथा भैंस में होने रोग है, हालाकि भैसों को यह गाय की तुलना में तीन गुना अधिक प्रभावित करता है। मुख्यतः रोग का शिकार कम उम्र के पशु होते है। इस रोग को साधारण भाषा में गलघोंटू के अतिरिक्त ‘घूरखा’, ‘घोंटुआ’, ‘अषढ़िया’, ‘डकहा’ आदि नामों से भी जाना जाता है। इस रोग से पशु अकाल मृत्यु का शिकार हो जाता है। यह मानसून के समय व्यापक रूप से फैलता है। अति तीव्र गति से फैलने वाला यह जीवाणु जनित रोग, छूत वाला भी है। यह पास्चुरेला मल्टोसीडा नामक जीवाणु (बैक्टीरिया) के कारण होता है। सामान्य रूप से यह जीवाणु श्वास तंत्र के उपरी भाग में मौजूद होता है एवं प्रतिकूल परिस्थितियों के दबाव में जैसे की मौसम परिवर्तन, वर्षा ऋतु, सर्द ऋतु, कुपोषण, लम्बी यात्रा, मुंह खुर रोग की महामारी एवं कार्य की अधिकता से पशु को संक्रमण में जकड लेता है। वातावरण में मिटटी व् घास में जीवाणु २-३ सप्ताह तक रह सकता है।

गलाघोंटू बहुत खतरनाक रोग है, यह रोग अति तीव्र एवं तीव्र दोनों का प्रकार संक्रमण पैदा कर सकता है। जिसमें  ग्रसित पशु की मृत्यु होने की सम्भावना 80 फीसदी से अधिक होती है एवं समय पर इलाज न शुरू होने पर एक-दो दिन में पशु मर जाता है। शुरुआत तेज बुखार से होती है। पीड़ित पशु के मुंह से ढेर सारा लार निकलता है। गर्दन में सूजन के कारण सांस लेने के दौरान घर्र-घर्र की आवाज आती है और अंतत: 12-24 घंटे में मौत हो जाती है।

संक्रमण : संक्रमित पशु से स्वस्थ पशु में दूषित चारे, लार द्वारा या श्वास द्वारा स्वस्थ पशु में फैलता है।

लक्ष्ण : 

इस रोग की शुरुआत में में पशु को अचानक तेज बुखार (105-107 डिग्री फारेनहाइट) हो जाता है एवं पशु कांपने लगता है। रोगी पशु सुस्त हो जाता है तथा खाना-पीना कम कर देता है। पशु की आंखें लाल हो जाती हैं। पशु को पीडा होती है और गले पर सूजन आ जाती और श्वास लेने में कठिनाई होती है और  घर्र घर्र की आवाज आती है। उसके मुंह से लार भी गिरने लगती है।

उपचार :

स्वयं या देशी चिकित्सा में समय एवं बर्बाद न करे, यदि पशु चिकित्सक समय पर उपचार शुरू कर देता है तब भी इस जानलेवा रोग से बचाव की दर कम है।  सल्फाडीमीडीन, ओक्सीटेट्रासाईक्लीन एवं क्लोरमफेनीकोल जैसे एंटी बायोटिक इस रोग के खिलाफ कारगर हैं। इनके साथ अन्य जीवन रक्षक दवाइयाँ भी पशु को ठीक करने में मददगार हो सकती हैं। इसलिए बचाव सर्वोतम कदम है।

बचाव:

  • बीमारपशु को तुरंत स्वस्थ पशुओं से अलग करें एवं उस स्थान को जीवाणु  रहित करें एवं सार्वजानिक स्थल जैसे की चारागाह एवं अन्य स्थान जहाँ पशु एकत्र होते हैं वहां न ले जाएँ क्योंकि यह रोग साँस द्वारा साथ पानी पीने एवं चारा चरणे  से फैलता है।
  • मरे हुए पशुओं कोकम से कम 5 फुट गहरा गड्डा खोदकर गहरा चुना एवं नमक छिडककर अच्छी तरह से दबाएँ। खुले में फेंकने से संक्रमित बैक्टीरिया पानी के साथ फैलकर रोग के प्रकोप का दायरा बढ़ा देता है।
  • जिस स्थान पर पशु मरा हो उसे कीटाणुनाशक दवाइयों, फिनाइल या चूने के घोल से धोना चाहिये।
  • बीमार पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से अलग रखना चाहिए।
  • पशु आवास को स्वच्छ रखें तथा रोग की संभावना होने पर तुरन्त पशु चिकित्सक से सम्पर्क कर सलाह ले।
  • अपने पशुओं को प्रति वर्ष वर्षा ऋतु से पूर्व इस रोग का टीका पशुओं को अवश्य लगवा लेना चाहिए। इस बीमारी का टीकाकरण वर्ष में दो बार होता है पहला वर्षा ऋतु  शुरू होने से पहले (मई – जून महीने में ) एवं दूसरा सर्द ऋतु होने से पहले (अक्टूबर – नवम्बर महीने में)। गलघोटू रोग के साथ ही मुह खुर रोग का टीकाकरण करने से गलघोटू रोग  से होने वाली पशु मृत्यु दर में भरी कमी आ सकती है।
  • टीकाकरण से पहले उसके ऊपर लिखी जरूरी सुचना पढ़ेंएवं इसे अच्छी तरह से हिलाएं। इस टीके को शीतल तापमान (2⁰ से 8⁰)पर रख-रखाव एवं यातायात करें।

 

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डॉ. मुकेश श्रीवास्तव

प्रभारी पशु औषधि विज्ञान विभाग,
पशु चिकित्सा विज्ञानं विश्वविद्यालय एवं गो अनुसन्धान संस्थान, मथुरा – उ. प्र.